बचपन के दिन भी क्या दिन थे । हम हर गर्मी की छुट्टियों में नानी के गाँव जाया करते थे।
उत्तर प्रदेश से बिहार तक की रेलगाड़ी के स्लीपर कोच की अठारह घंटे की यात्रा का अपना एक अलग ही आनंद हुआ करता था।
पतले गले वाली सुराही(जो अक्सर ट्रेन में रिसने लगती थी) का ठंडा पानी, भूनी हुई मूँगफली की फलिया और उसके साथ मिलने वाला लाल रंग का नमक उसके स्वाद में चार चाँद लगा जाता था।
माँ यात्रा की तैयारी एक माह पूर्व ही शुरु कर दिया करती थी।घर पर पहनने वाले कपड़े, घूमने जाने वाले कपड़े, ट्रेन में पहनने वाले आदि आदि, बक्शा तैयार कर लिया जाता था।
माँ ढेर सारे छोटे छोटे करेले की कलौंजी और पूरिया बनाकर डिब्बे में भर लिया करती थी।
जाने क्यों उस खाने में गजब का स्वाद आ जाता था ।
सामने बैठे सहयात्री भी ठीक उसी वक्त अपना अपना डिब्बा खोलते ।
सत्तू की पूरिया कचौडी फरा अचार और जाने क्या क्या।
खुशबूदार भोजन से पूरा डिब्बा गमकने लगता।
भोजन का आपस में आदान प्रदान भी शुरु हो जाता।
माँ हर यात्रा में कुछ न कुछ नया बनाना सीख जाती।
इन सब अनुभवों में सबसे सुखकर अनुभव था रेल से उतरने के बाद ताँगे में बैठकर अपने नानी गाँव अपने घर पहुँचना।
रास्ते के दोनों तरफ हरे भरे खेतों के मध्य से धूल धुसरित मार्ग से गुजरती हुई कच्ची सडक पर ताँगे से हिचकोले खाने का आनंद अवर्णनीय है।
दरवाजे पर स्वागत में खडी अपनों की भीड, उनकी आखों में छलकते स्नेह से अठारह घंटे के सफर की थकान छू मंतर हो जाती थी ।
फिर हमारे यहाँ रिवाज है दूर सफर से आने वालों की कठौत में गरम पानी से पैर धुलने की रस्म का ।
नानी पैर धुलते धुलते बड़े ही कुशलता से पैरों का अद्भुत मसाज किया करती थीं।
पर कहते हैं न कि जैसे माँ से मायका होता है वैसे ही नानी से ही ननिहाल की रौनक होती है।
ननिहाल तो अब भी है पर वह माया नहीं।
नानी जैसा पाहुनचार नहीं और ना ही अब ननिहाल जाने की पहले वाली वह उत्कंठा ।
शुभम् पाण्डेय
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